किस्सा: दादा जी की डायरी से..

 दादा जी के डायरी: 

मै बचपन से ही दादा जी को डायरी लिखते देखा है, मुझे याद है की जब मै बहुत छोटा था तो दादा जी अक्सर रात को एक डायरी मे कुछ लिखा करते थे और मुझे हमेशा से ये जिज्ञासा रही की मै जान पाऊं की आखिर उस डायरी मे दादा जी क्या लिखते थे मैने उनसे एक दिन पुछा की दादा जी आप इस डायरी मे क्या लिखते है?

तब उन्होने कहा था की मै इसमे अपने कुछ खास अनुभव लिखता हुँ जब तुम बड़े हो जाओगे तो मै तुम्हे इसे जरुर दूंगा  पढ़ने के लिये।

लेकिन समय के साथ उन्होने लिखना यो बन्द कर दिया पर उनकी पुरानी डायरी हमेशा से मेरे लिये एक कौतूहल बनी रही थी।

परंतु समय के साथ मै जैसे जैसे बड़ा हुआ कही न कहीं वो डायरी की बात मेरे मन से धुन्धली हो गई।

आज कई साल बाद मुझे वो डायरी एक बक्से मे दिखी और मैने बिना देर किये उसे उठा लिया और दादा जी के पास ग्या और बोला की आपकी डायरी मिल गई मुझे तब उन्होने मुझे बोला की  ये तुम्हारे लिये ही तो है और अब तुम इसमे लिखी बातों को समझ भी सकते हो तो इसे तुम ही अपने पास रखो...

आखिर थीतो आज भी वो डायरी मेरे लिये जिज्ञासा का विषय तो बिना देर किये मै उसे तुरंत पढ़ने बैठ गया उसी डायरी मे मुझे एक अपने ऐसे प्रश्न का उत्तर मिला जिसे मै उन्ही के शब्दों मे हुबहू आपसे साझा करना  चाहूँगा.....



                                       

  एक बार सन् 1989 में मैंने सुबह टीवी खोला तो जगत गुरु शंकराचार्य कांची कामकोटि जी से प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम चल रहा था। 


एक व्यक्ति ने प्रश्न किया कि हम भगवान को भोग क्यों लगाते हैं ? 


हम जो कुछ भी भगवान को चढ़ाते हैं 


उसमें से भगवान क्या खाते हैं?

क्या पीते हैं?

क्या हमारे चढ़ाए हुए पदार्थ के रुप रंग स्वाद या मात्रा में कोई परिवर्तन होता है?


यदि नहीं तो हम यह कर्म क्यों करते हैं। क्या यह पाखंड नहीं है? 


यदि यह पाखंड है तो हम भोग लगाने का पाखंड क्यों करें ? 


मेरी भी जिज्ञासा बढ़ गई थी कि शायद प्रश्नकर्ता ने आज जगद्गुरु शंकराचार्य जी को बुरी तरह घेर लिया है देखूं क्या उत्तर देते हैं। 


किंतु जगद्गुरु शंकराचार्य जी तनिक भी विचलित नहीं हुए । बड़े ही शांत चित्त से उन्होंने उत्तर देना शुरू किया। 


उन्होंने कहा यह समझने की बात है कि जब हम प्रभु को भोग लगाते हैं तो वह उसमें से क्या ग्रहण करते हैं। 


मान लीजिए कि आप लड्डू लेकर भगवान को भोग चढ़ाने मंदिर जा रहे हैं और रास्ते में आपका जानने वाला कोई मिलता है और पूछता है यह क्या है तब आप उसे बताते हैं कि यह लड्डू है। फिर वह पूछता है कि किसका है?


तब आप कहते हैं कि यह मेरा है। 


फिर जब आप वही मिष्ठान्न प्रभु के श्री चरणों में रख कर उन्हें समर्पित कर देते हैं और उसे लेकर घर को चलते हैं तब फिर आपको जानने वाला कोई दूसरा मिलता है और वह पूछता है कि यह क्या है ?


तब आप कहते हैं कि यह प्रसाद है फिर वह पूछता है कि किसका है तब आप कहते हैं कि यह हनुमान जी का है ।


अब समझने वाली बात यह है कि लड्डू वही है। 


उसके रंग रूप स्वाद परिमाण में कोई अंतर नहीं पड़ता है तो प्रभु ने उसमें से क्या ग्रहण किया कि उसका नाम बदल गया । वास्तव में प्रभु ने मनुष्य के मम कार को हर लिया । यह मेरा है का जो भाव था , अहंकार था प्रभु के चरणों में समर्पित करते ही उसका हरण हो गया । 


प्रभु को भोग लगाने से मनुष्य विनीत स्वभाव का बनता है शीलवान होता है । अहंकार रहित स्वच्छ और निर्मल चित्त मन का बनता है । 


इसलिए इसे पाखंड नहीं कहा जा सकता है । 


यह मनो विज्ञान है ।




अपने प्रश्न का  इतना सुन्दर उत्तर पढ़ कर मैं भाव विह्वल हो गया । वास्तव मे वो डायरी मात्र नही है वो उनके अनुभव है और न जाने उन अनुभवों मे मेरे कितने सवालों के जवाब छुपे है...

और मै शुक्रिया करना चाहूँगा दादा जी का की उन्होने जी मुझे एक जीवन मे आने वाली कठिनाईयों और मेरे प्रश्नों की सरल सी कुन्जी अपने अनुभवों  के रुप मे दी...


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